Sunday 31 August 2014

KABHI KABHIE


कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि ज़िंदगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाओं में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
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मगर ये हो न सका
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
कि तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तुज़ू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं
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भटक रही है ख़यालों में ज़िंदगी मेरी
इन्हीं ख़यालों में रह जाऊँगा कभी खो कर
मैं जानता हूँ मेरे हमनफ़स, मगर यूँ हीं
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

शादाब – Blissful
POET:SAHIR

Sunday 3 August 2014

NAADAN NAHI


लम्हे-लम्हे की सियासत पे नज़र रखते हैं
हमसे दीवाने भी दुनिया की ख़बर रखते हैं

इतने नादां भी नहीं हम कि भटक कर रह जाएँ
कोई मंज़िल न सही, राहगुज़र रखते हैं

रात ही रात है, बाहर कोई झाँके तो सही
यूँ तो आँखों में सभी ख़्वाब-ए-सहर  रखते हैं

 मार ही डाले जो बेमौत ये दुनिया वो है,
हम जो जिन्दा हैं तो जीने का हुनर रखते हैं!

हम से इस दरजा तग़ाफुल भी न बरतो साहब
हम भी कुछ अपनी दुआओं में असर रखते हैं

 

[-जांनिसार अख्तर]