Sunday, 9 November 2014

HAR LAMHA JEENA HAI TO


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार,पर्दों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।



 

Author:Dushyant kumar

Thursday, 18 September 2014

PHIR SAHI


हम को किसके ग़म ने मारा, ये कहानी फिर सही
किसने तोड़ा दिल हमारा, ये कहानी फिर सही

दिल के लुटने का सबब, पूछो सब के सामने
नाम आयेगा तुम्हारा, ये कहानी फिर सही

नफ़रतों के तीर खा कर, दोस्तों के शहर में
हम ने किस किस को पुकारा, ये कहानी फिर सही

क्या बतायें प्यार की बाज़ी वफ़ा कि राह में
कौन जीता, कौन हारा, ये कहानी फिर सही

 

 

शायर: मसरूर अनवर

Monday, 8 September 2014

kaash


रूह में फासले नहीं होते  

काश हम तुम मिले नहीं होते  

 

एक साया न साथ जो देता  

दो कदम भी चले नहीं होते  

काश हम तुम मिले नहीं होते  

 

ज़ोर ओ ज़ब्र से न हासिल कर  

दिल तो शाही किले नहीं होते

काश हम तुम मिले नहीं होते

 

यूँ अचानक मिले कहीं हम तुम  

रोज़ तो ज़लज़ले नहीं होते

काश हम तुम मिले नहीं होते

रूह में फासले नहीं होते
 
lyricist:mahendra madhukar

Tuesday, 2 September 2014

RISHTA


 
तुमसे जब पहली बार मुलाक़ात हुई  अरसे बाद धीमी सी बरसात हुई
नशा कुछ तुम्हारी ख़ामोशी का हुआ दिल पर असर कुछ उस मुलाक़ात का हुआ
दिल को तुम्हारी आहट की आस रहने लगी निगाह को तेरी सूरत की प्यास रहने लगी
तेरे बिना ज़िन्दगी में कमी तो नहीं फिर भी तेरे बिना थोड़ी उदास रहने लगी
क्या था ये क्यों था ये  न तुम को समझ आया न जानता था मै
पर गुनगुना नहीं सकता था वोह तराना मै, जानती थीं तुम जानता था मै,
तुम्हे जवाब चाहिए थे मैं सवाल की तलाश में था
तुम्हे प्यार चाहिए था मै साहिल की तलाश मे था
तुम्हे ठ्हेराव चाहिए था मै बहाव की तलाश में था
ख़ुशी की दरकार में तुम थी मैं सुकून की तलाश में था
साथ चाहिए था तुम्हे उम्र भर का मै तनहाइयों के आगोश में था
गैरों की बाँहों का गैरज़रूरी सहारा क्यों लेता हूँ मैं
शायद खुद से भागने की फ़िराक में हूँ
तुम्हे दर्द देता है यह मेरा दर दर भटकना
क्या बताऊँ तुम्हे खुद से मिलने की तलाश में हूँ
क्यों है यह आवारापन और बंजारापन रास्ता मेरा
अपने नसीब के दिखाए रास्ते के ऐहेतराम में हूँ
मैं वोह ख्वाब नहीं जो तुम्हारी आँखों में होना चाहिए
न वोह धड़कन जो तुम्हारे दिल का साज़ बने
मैं एक मुश्त ऐ गुबार हूँ दिल की दुनिया मे
कोई खुशनसीब ही तुम्हारा राजदार बने
पर फिर भी-
कोई ऐसे चाहे किसी को जैसे तुम मुझे चाहती हो
कोई ऐसे जाने किसी को जैसे मै तुम्हे जानता हूँ
पता है क्यों है ऐसा –
 क्योंकि मोहब्बत से बड़ा रिश्ता है मेरा और तुम्हारा
दर्द का हाँ दर्द का ये  रिश्ता है मेरा और तुम्हारा
 
 
 
 

Sunday, 31 August 2014

KABHI KABHIE


कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि ज़िंदगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाओं में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
…………………………….
मगर ये हो न सका
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
कि तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तुज़ू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं
……………………..
भटक रही है ख़यालों में ज़िंदगी मेरी
इन्हीं ख़यालों में रह जाऊँगा कभी खो कर
मैं जानता हूँ मेरे हमनफ़स, मगर यूँ हीं
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

शादाब – Blissful
POET:SAHIR

Sunday, 3 August 2014

NAADAN NAHI


लम्हे-लम्हे की सियासत पे नज़र रखते हैं
हमसे दीवाने भी दुनिया की ख़बर रखते हैं

इतने नादां भी नहीं हम कि भटक कर रह जाएँ
कोई मंज़िल न सही, राहगुज़र रखते हैं

रात ही रात है, बाहर कोई झाँके तो सही
यूँ तो आँखों में सभी ख़्वाब-ए-सहर  रखते हैं

 मार ही डाले जो बेमौत ये दुनिया वो है,
हम जो जिन्दा हैं तो जीने का हुनर रखते हैं!

हम से इस दरजा तग़ाफुल भी न बरतो साहब
हम भी कुछ अपनी दुआओं में असर रखते हैं

 

[-जांनिसार अख्तर]

Wednesday, 30 July 2014

BAS


मैं भी कुछ चुप सा हूँ तुम भी कुछ गुमसुम हो

ख्यालों में खोया हुआ हूँ मैं ,ख्यालों में खोई तुम हो

क्या चाहती हो तुम खबर नहीं है मुझे

कोशिश बहुत की जानने की और सब्र नहीं है मुझे

दर्द दिल का सम्हलता नहीं है

सच क्या है पता चलता नहीं है

शाम-ऐ गम की क्या कभी सहर नहीं होती  

या शायद  हमी को खबर नहीं होती

जिस्मों ने बात की क्या कोई दोष हमारा था

कुछ मेरी दिलेरी थी  कुछ इशारा तुम्हारा था  

पर अब इस रुख ने तुम्हारी  चाहत पर सवाल उठाया है

क्या वाकई इश्क है या किसी और जज्बे का सरमाया है

क्या खून के रिश्ते हर ओछेपन को सही  बना सकते हैं

क्या सचाई के फ़रिश्ते  उस घटियापन के आगे  सर झुका सकते हैं

अगर हाँ तो तोड़ो दिल मेरा और कह दो मुझसे

बस साथ यहीं तक था  अब और नहीं होगा तुमसे

साथ तो वैसे भी ज्यादा तै नहीं था

चार क़दम से आगे का वादा नहीं था

पर  इस शर्त पर वो मंज़ूर नहीं मुझे

अलविदा होना है तो उससे गुरेज़ नहीं मुझे

तुमने तो कहा ही था की साथ न दे पाओगी

[माँगा नहीं था वैसे ]

पता न था कि चार कदम में भी लड़खड़ाओगी

तुम्हारा कहना की इतना न चाहो मुझे, बड़ा दिल को सालता है

यह चार सौ पच्चीस ग्राम मोहब्बत दिल में कौन पालता है

इस अजीब मोहब्बत का बड़ा खूबसूरत पैगाम  भी हो सकता था

हर नस में प्यार के शरारे भर जाने का अंजाम भी हो सकता था

कहती अभी भी हो तुम की सब तुम्हारे हाथ में है

क्या पता भी है कि एक नायब जज्बा तुम्हारे साथ में है

मोहब्बत से ऐसी मुलाक़ात शायद न कर सकोगी

साथ तो मिलेगा तुम्हे ,दिल को ऐसे न भर सकोगी

पर जैसा मैंने कहा-

फैसले कल भी तुम्हारे थे फैसले आज भी तुम्हारे हैं

हम तो कल भी हारे थे हम तो आज भी हारे हैं

जाना तो था  ही एक दिन तो आज ही सही

बस अब कभी नहीं कभी नहीं कभी नहीं .

Saturday, 26 July 2014

ZARORI THHA


लफ्ज़ कितने  तेरे पैरों से लिपटे होंगे
तूने जब आख़िरी खत मेरा जलाया होगा
तूने जब फूल, किताबों से निकाले होंगे
देने वाला भी तुझे याद तो आया होगा

तेरी आँखों के दरिया का उतरना भी ज़रूरी था
मोहब्बत भी ज़रूरी थी बिछड़ना भी ज़रूरी था
ज़रूरी था की हम दोनों तवाफ़े आरज़ू करते
मगर फिर आरज़ूओं का बिखरना भी ज़रूरी था
तेरी आँखों के दरिया का उतरना भी ज़रूरी था

बताओ याद है तुमको वो जब दिल को चुराया था
चुराई चीज़ को तुमने खुदा का घर बनाया था
वो जब कहते थे मेरा नाम तुम तस्बीह में पढ़ते हो

मोहब्बत की नमाज़ों को कदा करने से डरते हो
मगर अब याद आता है वो बातें थी महज़ बातें
कहीं बातों ही बातों में मुकरना भी ज़रूरी था
तेरी आँखों के दरिया का उतरना भी ज़रूरी था

वही हैं सूरतें अपनी वही मैं हूँ, वही तुम हो
मगर खोया हुआ हूँ मैं मगर तुम भी कहीं गुम हो
मोहब्बत में दग़ा की थी सो काफ़िर थे सो काफ़िर हैं
मिली हैं मंज़िलें फिर भी मुसाफिर थे मुसाफिर हैं
तेरे दिल के निकाले हम कहाँ भटके कहाँ पहुंचे
मगर भटके तो याद आया भटकना भी ज़रूरी था
मोहब्बत भी ज़रूरी थी बिछड़ना भी ज़रूरी था
ज़रूरी था कि हम दोनों तवाफ़े आरज़ू करते
मगर फिर आरज़ूओं का बिखरना भी ज़रूरी था
तेरी आँखों के दरिया का उतरना भी ज़रूरी था
Lyrics: Khalil-ur-Rehman Qamar