Saturday 17 May 2014

DIL KI BAAT


किसी की आँख का नूर हूँ, किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम सके, मैं वो एक मुश्त--ग़ुबार हूँ

तो मैं किसी का हबीब हूँ, तो मैं किसी का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ, जो उजड़ गया वो दयार हूँ


मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन ख़िज़ां से उजड़ गया, मैं उसी की फ़स्ल--बहार हूँ


पए-फ़ातेहा कोई आये क्यूँ, कोई चार फूल चढ़ाये क्यूँ
कोई के शम्मा जलाये क्यूँ, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ


मैं कहाँ रहूँ मैं कहाँ बसूँ न यह मुझसे खुश न वोह मुझसे खुश
मैं ज़मीन की पीठ पे बोझ हूँ,मैं फलक के दिल का गुबार हूँ

 
किसी की आँख का नूर हूँ, किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम सके, मैं वो एक मुश्त--ग़ुबार हूँ



This ghazal was written by Bahadur Shah Zafar, the last Mughal Emperor when he was exiled to Rangoon, Burma after the 1857 Indian war of independence .He later died there.

No comments:

Post a Comment